Sunday, February 8, 2009

शहर

बड़े शहरों के ये रौनक भरे बाजार ,
लोगों की भीड़ से भरी सड़कें ,
गाड़ियों की रेलमपेल,
अब मुझे अच्छी नही लगती।
पता नहीं क्यूँ ,
मुझे सुनाई पड़ती है
बाजारों के कोनों से,
सडकों के किनारों से
आती लोगों की सिसकियाँ ,
झुग्गी - झोपडियों से आती
बच्चों के रोने की आवाजें।
अरे मोहन!
चुप तो कराओ इनको,
कोई तो ख्वाहिशें सुनो इनकी,
ये भी तो जान हैं,
इन्हें भी तो जीने का हक़ है।
सड़क के किनारे पड़े लोग,
जिनके बच्चे खेलते कूढे के ढेर पर,
शहर आए थे कुछ ख्वाहिशें लेकर,
पैसा कमाने की खातिर,
उनको पैसे वालों के बिगडैल लड़को की गाडियां ,
या तेज रफ़्तार बसें,
कुचल देती हैं ऐसे,
जैसे ये आदमी नहीं,
हों कोई कूढा करकट का ढेर।
कूढे करकट के ढेर में बढ़ते बच्चे,
कोई इनका भविष्य भी तो पूंछे ?
क्या कभी पढ़ने गए ये बच्चे?
जायेंगे कैसे, कौन देगा इनकी फीस ?
कैसे लेंगे बस्ते , किताबें और ड्रेस ?
दिन भर स्कूल में बिताएंगे,
तो क्या मिलेगा?
अरे मोहन!
दिन भर कचरा, कबाड़ बीन लेते
तो खाने का जुगाड़ हो जाता।
किसी होटल में बर्तन धो देते
तो कुछ पैसे ही मिल जाते,
किसी की जेब पार कर देते ,
तो अच्छा माल मिल जाता।
इतना बड़ा शहर , इतने कारखाने ,
इतनी कंपनियाँ, इतने ऑफिस,
कहीं इनके बापों को कम मिलता,
तो उनके बच्चे ये काम क्यूँ करते।
हाये रे ये शहर!