Monday, February 23, 2009

शाहीर लुधियानवी

मेरी नाकाम मुहब्बत की कहानी मत छेड़
अपनी मायूस उमंगों का फासाना ना सुना
ज़िंदगी तल्ख़ सही, ज़हर सही, सितम ही सही
दर्द-ओ-आज़ार सही, ज़ब्र सही, ग़म ही सही
लेकिन इस दर्द-ओ-ग़म-ओ-ज़ब्र की उसत को तो देख
ज़ुल्म की छाँव में दम तोड़ती खालक़त को तो देख
अपनी मायूस उमंगों का फ़साना ना सुना
मेरी नाकाम मुहब्बत की कहानी मत छेड़
जलसा-गाहों में ये वहशत-ज़दाह सहमे अंबोह
रहगुज़ारों पे फ़लाकात ज़दाह लोगों के गिरोह
भूख और प्यास से पाज़-मुर्दा सियाह-फ़ाम ज़मीन
तीर्ः-ओ-तार मकान, मुफलिस-ओ-बीमार मकीन
नौ इंसान में ये सरमाया-ओ-मेहनत का त्ाज़ाद्ड़
अमन के परचम तले क़ौमों का फ़साद
हर तरफ़ आतीश-ओ-आहन्न का ये सैलाब-ए-अज़ीम
नित नये तर्ज़ पे होती हुई दुनिया तक़सीम
लहलहात्ते हुए खेतों पे जवानी का समान
और दहक़न के छ्पपर में ना बत्ती ना धुआँ
ये फ़लाक-बोस मिलें, दिलकश-ओ-सीमीन बाज़ार
ये घलाज़ट ये झपटाते हुए भूखे बाज़ार
दूर साहिल पे वो शफ़्फ़ाफ़ मकानों की क़तार
सरसराते हुए पर्दों में सिमट-ते गुलज़ार
दर-ओ-दीवार पे अंवार का सैलाब रवाँ
जैसे इक शायर-ए-मदहोश के ख्वाबों का जहाँ
ये सभी क्यों है ये क्या है मुझे कुछ सोचने दे
कौन इंसान का खुदा है मुझे कुछ सोचने दे
अपनी मायुस उमंगों का फासाना ना सुना
मेरी नाकाम मुहब्बत की कहानी मत छेड़