अब तुम्हारा प्यार भी मुझको स्वीकार नहीं प्रेयसी!
अश्रु सी है आज तिरती याद उस दिन की नजर में,
थी पड़ी जब नाव अपनी काल तूफानी भंवर में,
कूल पर तब ही खड़ी तुम व्यंग मुझ पर कर रही थीं,
पा सका था पार मैं खूब डूबकर सागर-लहर में,
हर लहर ही आज जब लगाने लगी है पार मुझको,
तुम चलीं देने मुझे तब एक जड़ पतवार प्रेयसी!
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको स्वीकार नहीं प्रेयसी!
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको स्वीकार नहीं प्रेयसी!
चाहता था जब ह्रदय बनना तुम्हारा ही पुजारी,
छीन कर सर्वस्व मेरा तब कहा तुमने भिखारी,
आंसुओं से रात दिन मैंने चरण धोए तुम्हारे,
पर न भीगी एक क्षण भी चिर निठुर चितवन तुम्हारी,
जब तरस कर आज पूजा भावना ही मर चुकी है,
तुम चली मुझको दिखने भावमय संसार प्रेयसी!
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको स्वीकार नही प्रेयसी!
क्या बला का खूबसूरत दौर है,
आदमी हर पल यहाँ कुछ और है। ******************************
क्यों होंठ लरजते हैं,
क्या आज हुआ हमको;
खुशबू के बहाने से,
मौसम ने छुआ मुझको।
सर्पदंशिता पीड़ाओं को कितने जन्म पड़ा लहराना,
तब आभाव के नीलकंठ से फूट रहा मदभरा तराना,
रुंधा-रुंधा पीड़ा का श्वर है अपना राग सुनाएँ कैसे,
इतना सरल नहीं होता है विष के घूँट कंठ से गाना.
आदमी बन जो धरा का भार कन्धों पर उठाए,
बाँट दे जग को न अमृत बूँद अधरों से लगाए,
है जरूरत आज इसे आदमी की स्रष्टि को फिर,
विश्व का विष सिन्धु पी जाए मगर हिचकी न आए।
प्राण बोले प्रीति अंतस में छिपाना जानते हैं,
अधर बोले पीर को हम गुनगुनाना जानते हैं,
प्रथम तो सकुचे मगर फिर यों लजीले नयन बोले
हम धधकती आग को पानी बनाना जानते हैं.