Wednesday, August 26, 2009

गोपाल दास नीरज/प्यार सिखाना व्यर्थ है

अब मुझको प्यार सिखाना व्यर्थ है।

जब बहार के दिन थे बोली न कोयलिया,

जब वृन्दावन तड़प रहा था आया तब न सांवलिया,

बिलख बिलख मर गयी मगर जब विकल बिरह की राधा,

नयन यमुन तट प्राण; मिलन का रास रचना व्यर्थ है।

अब मुझको......

एक बूँद के लिए पपीहे ने सौ सिन्धु बहाए,

किन्तु बादलों ने जी भर कर पहन बरसाए,

तरस-तरस बन गयी मगर जब तृप्ति तृषा ही तो फिर,

पथराये अधरों पर अमृत भी बरसना व्यर्थ है।

अब मुझको.........

अब सब सपने धुल मर चुकी हैं सारी आशाएं,

टूटे सब विश्वास और बदली सब परिभाषाएं,

जीता हूँ इसलिए की जीना भी है एक विवशता,

मरने के भी लिए जिन्दगी की है आवश्यकता,

इसलिए प्रिय प्राण!किसी की सुधि का दीप सलोना,

मेरे अंधियारे खंडहर में आज जलना व्यर्थ है।

अब मुझको प्यार........

1 comment:

  1. Aisa lagta hai dear ki neeraj ji bhi kabhi kisi ke pyar ke shikar huye hain - M.Hashim

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