Saturday, November 1, 2008

ahmad faraj

रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

कुछ तो मेरे ग़रूर-ए-मोहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ

पहले से दस्तूर न सही, फिर भी कभी तो
रस्मे-रहे दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से ख़फ़ा है, तो ज़माने के लिए आ

एक उमर से हूँ रोने से भी महरूम
ए राहत-ए-जाँ मुझको रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-खुशफ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें
यह आखिरी शमाएँ भी बुझाने के लिए आ

No comments:

Post a Comment