Saturday, November 1, 2008

अहमद फराज


अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें

तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें

ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नशा बड़ता है शरबें जो शराबों में मिलें

आज हम दार पे खेंचे गये जिन बातों पर
क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें

अब न वो मैं हूँ न तु है न वो माज़ी है "फ़राज़"
जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें

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