अब नये साल की मोहलत नहीं मिलने वाली
आ चुके अब तो शब-ओ-रोज़ अज़ाबों वाले
अब तो सब दश्ना-ओ-ख़ंज़र की ज़ुबाँ बोलते हैं
अब कहाँ लोग मुहब्बत के निसाबों वाले
ज़िन्दा रहने की तमन्ना हो तो हो जाते हैं
फ़ाख़्ताओं के भी किरदार उक़ाबों वाले
मौसम आये ही नहीं अब के गुलाबों वाले
ऐसे चुप हैं के ये मंज़िल भी ख़ड़ी हो जैसे
ऐसे चुप हैं के ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसेतेरा मिलना भी जुदाई कि घड़ी हो जैसे
अपने ही साये से हर गाम लरज़ जाता हूँ
रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे
मंज़िलें दूर भी हैं मंज़िलें नज़दीक भी हैं
अपने ही पावों में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे
कितने नादान हैं तेरे भूलने वाले के तुझे
याद करने के लिये उम्र पड़ी हो जैसे
चंद लम्हों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे
बदन में आग सी चेहरा गुलाब जैसा है
बदन में आग सी चेहरा गुलाब जैसा हैके ज़हर-ए-ग़म का नशा भी शराब जैसा है
कहाँ वो क़ुर्ब के अब तो ये हाल है जैसे
तेरे फ़िराक़ का आलम भी ख़्वाब जैसा है
मगर कभी कोई देखे कोई पढ़े तो सही
दिल आईना है तो चेहरा किताब जैसा है
वो सामने है मगर तिश्नगी नहीं जाती
ये क्या सितम है के दरिया सराब जैसा है
हमें अज़ीज़ है ख़ानाख़राब जैसा है
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