Sunday, November 2, 2008

यहाँ वहां से

मत करो उम्र भर साथ निभाने का वादा!
हमने सायों को भी जुदा होते हुए देखा है!!

आपकी आँखों में कुछ महके हुए से राज हैं;
आपसे भी खूबसूरत आपके अंदाज हैं.

झूम झूम जायेगा, दर्द मुस्कराएगा;
एक बार भूल कर जो प्यार से पुकार लो.

कभी कुछ प्यार का अपने, प्रिये एहसास तो देते;
हृदय की धडकनों को , प्यार का विश्वास तो देते.

तुमको अपना कहकर मैंने, अपना अपनापन दे डाला;
तन पर तो अधिकार नहीं था, मैंने अपना मन दे डाला.

तू मुझसे खफा है तो जमाने के लिए आ;
रंजिश ही सही दिल को दुखाने के लिए आ;
आ फिर से मुझे छोड़ जाने के लिए आ.

बदन में आग सी चेहरा गुलाब जैसा है,
जहर ऐ गम का नशा भी शराब जैसा है;
मगर कभी कोई देखे कोई पढ़े तो सही,
दिल आइना है तो चेहरा किताब जैसा है.

सब तल्ख़ नहीं यारों,
कुछ याद भी रखना है,
कुछ भूल भी जाना है.

एक छोटा सा बिंदु

एक छोटा सा विन्दु (.) एक बड़े वाक्य पर विराम लगा देता है. किन्तु कुछ और बिंदु (...) मिल जाएँ , तो वे उस वाक्य को एक निरंतरता दे सकते हैं. आश्चर्यजनक किन्तु सत्य है कि हर अंत एक शुरुआत हो सकता है.

जहां दुसरे लोग संदेह करे, वहां विशवास करो. जहां दुसरे काम करने से मन कर दे , वहां काम करो. जहां दुसरे लोग बर्वाद करें , वहां बचाओ . जहां दुसरे लोग मैदान छोड़ कर भाग रहे हो , वहां डट जाओ. दुसरे से अलग बनाने का साहस रखो . तभी विजेता बनोगे..
(अमिताभ बच्चन के शब्द)

Saturday, November 1, 2008

faraj

wo roye ga meri mayyat per mujhse is tarha lipat kar faraaz …!
agar yeh pehle pata hota to kab ke mar gaye hote ….

अहमद फ़राज़ की शायरी


जाने किस बात पे उस ने मुझे छोड़ दिया है फ़राज़ !
मैं तो मुफलिस था किसी मन की दुआओं की तरह..
उस शक्श को तो बिछड़ने का सलीका नहीं फ़राज़!
जाते हुए खुद को मेरे पास छोड़ गया
अब उसे रोज सोचो तो बदन टूटता है फ़राज़..
उम्र गुजरी है उसकी याद नशा करते करते
बे -जान तो मै अब भी नहीं फराज..
मगर जिसे जान कहते थे वो छोड़ गया..
जब्त ऐ गम कोई आसान काम नहीं फराज.
आग होते है वो आंसू , जो पिए जाते हैं.
क्यों उलझता रहता है तू लोगो से फराज.
ये जरूरी तो नहीं वो चेहरा सभी को प्यारा लगे.

ahmad faraj ke kuch nagme


अब नये साल की मोहलत नहीं मिलने वाली


अब नये साल की मोहलत नहीं मिलने वाली
आ चुके अब तो शब-ओ-रोज़ अज़ाबों वाले

अब तो सब दश्ना-ओ-ख़ंज़र की ज़ुबाँ बोलते हैं
अब कहाँ लोग मुहब्बत के निसाबों वाले

ज़िन्दा रहने की तमन्ना हो तो हो जाते हैं
फ़ाख़्ताओं के भी किरदार उक़ाबों वाले

न मेरे ज़ख़्म खिले हैं न तेरा रंग-ए-हिना
मौसम आये ही नहीं अब के गुलाबों वाले

ऐसे चुप हैं के ये मंज़िल भी ख़ड़ी हो जैसे

ऐसे चुप हैं के ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे
तेरा मिलना भी जुदाई कि घड़ी हो जैसे

अपने ही साये से हर गाम लरज़ जाता हूँ
रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे

मंज़िलें दूर भी हैं मंज़िलें नज़दीक भी हैं
अपने ही पावों में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे

कितने नादान हैं तेरे भूलने वाले के तुझे
याद करने के लिये उम्र पड़ी हो जैसे

आज दिल खोल के रोये हैं तो यूँ ख़ुश हैं "फ़राज़"
चंद लम्हों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे

बदन में आग सी चेहरा गुलाब जैसा है

बदन में आग सी चेहरा गुलाब जैसा है
के ज़हर-ए-ग़म का नशा भी शराब जैसा है

कहाँ वो क़ुर्ब के अब तो ये हाल है जैसे
तेरे फ़िराक़ का आलम भी ख़्वाब जैसा है

मगर कभी कोई देखे कोई पढ़े तो सही
दिल आईना है तो चेहरा किताब जैसा है

वो सामने है मगर तिश्नगी नहीं जाती
ये क्या सितम है के दरिया सराब जैसा है

"फ़राज़" संग-ए-मलामत से ज़ख़्म ज़ख़्म सही
हमें अज़ीज़ है ख़ानाख़राब जैसा है

अहमद फराज


अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें

तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें

ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नशा बड़ता है शरबें जो शराबों में मिलें

आज हम दार पे खेंचे गये जिन बातों पर
क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें

अब न वो मैं हूँ न तु है न वो माज़ी है "फ़राज़"
जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें

आँख से दूर न हो / अहमद फराज


आँख से दूर न हो दिल से उतर जायेगा
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जायेगा

इतना मानूस न हो ख़िल्वत-ए-ग़म से अपनी
तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जायेगा

तुम सर-ए-राह-ए-वफ़ा देखते रह जाओगे
और वो बाम-ए-रफ़ाक़त से उतर जायेगा

ज़िन्दगी तेरी अता है तो ये जानेवाला
तेरी बख़्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जायेगा

डूबते डूबते कश्ती तो ओछाला दे दूँ
मैं नहीं कोई तो साहिल पे उतर जायेगा

ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का "फ़राज़"
ज़ालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जायेगा

ahmad faraj

रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

कुछ तो मेरे ग़रूर-ए-मोहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ

पहले से दस्तूर न सही, फिर भी कभी तो
रस्मे-रहे दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से ख़फ़ा है, तो ज़माने के लिए आ

एक उमर से हूँ रोने से भी महरूम
ए राहत-ए-जाँ मुझको रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-खुशफ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें
यह आखिरी शमाएँ भी बुझाने के लिए आ

jeevan ke safar me

जीवन के सफ़र मेँ राही
मिलते हैँ बिछड जाने को
और दे जाते हैँ यादेँ
तनहाई मे तडपाने को

ये रूप की दौलत वाले
कब सुनते हैँ दिल के नाले
तकदीर न बस मे डाले
इनके किसी दीवाने को

जो इनकी नजर से ख़ेले
दुख पाये मुसीबत झेले
फिरते हैँ ये सब अलबले
दिल ले के मुकर जाने को

दिल ले के दगा देते हैँ
एक रोग लगा देते हैँ
हँस हँस के जला देते हैँ
ये हुस्न के परवाने को

अब साथ न गुजरेँगे हम
लेकिन ये फ़िजा रातोँ की
दौहराया करेगी हरदम
इस प्यार के अफ़साने को

-जीवन के सफ़र मेँ राही
मिलते हैँ बिछड जाने को
और दे जाते हैँ यादेँ
तनहाई मे तडपाने को

h.r. bacchan

आदर्श प्रेम
प्यार किसी को करना लेकिन
कह्कर उसे बताना क्या
अपने को अर्पण करना पर
और को अपनाना क्या

गुण का ग्राहक बनना लेकिन
गाकर उसे सुनाना क्या
मन के कल्पित भावोँ से
औरोँ को भ्रम मे लाना क्या

ले लेना सुगन्ध सुमनोँ की
तोड उन्हेँ मुरझाना क्या
प्रेम हार पहनाना लेकिन
प्रेम पाश फैलाना क्या


त्याग अँक मे पले प्रेम शिशु
उनमे स्वार्थ बताना क्या
देकर ह्रिदय ह्रिदय पाने की
आशा व्यर्थ लगाना क्या

sahir ludhiyanavi

तुम्हारी मस्त नज़र अगर इधर नहीं होती
नशे में चूर फ़िज़ा इस कदर नहीं होती
तुम्हीं को देखने की दिल में आरज़ूएं हैं
तम्हारे आगे ही और ऊँची नज़र नहीं होती
ख़्हफ़ा न होना अगर बड़ के थाम लूँ दामन
ये दिल फ़रेब ख़्हता जान कर नहीं होती
तुम्हारे आने तलक हम को होश रहता है
फिर उसके बाद हमें कुछ ख़्हबर नहीं होती

jaane kyon..

जाने क्यों ऐसा होता है
जब भी में उससे मिलता हूं,
होंठ नहीं खुलते उसके पर
बोलती है उसकी आँखें


शर्मो हया रिश्तो के बंधन
रोक नहीं पाते मुझको,
अक्सर जब एक खास अदा से
उठती है उसकी आँखें


जब भी कभी मेरी आँखों से
मिलती है उसकी आँखें,
जाने क्या मेरी आँखों में
ढून्ढ़ती है उसकी आँखें....

sach kahu to..

सच कहूं तो......
सोचना अच्छा लगता है....................
यायावर की तरह विचरना...................

और फिर विचरते हुए खो जाना अच्छा लगता है......
रात की गुमनामी और फिर दिन की चुनौति अच्छी लगती है.........
जीवन से प्रेम और जीवन का संघर्ष अच्छा लगता है.........
और सच कहूं तो लड़ना अच्छा लगता है......
यही मैं और मेरी दूनिया है.......

ahmad faraj..

Gham-e-Hayat ka Jhagra Mita raha hay koi
Chaly aao keh dunya say jaa raha hay koi


Azal say keh do keh ruk jaaye do Ghari
Suna hay aanay ka waada nibha raha hay koi

Wo is naaz say baithe hain Lash kay paas
Jaisy roothey howay ko manaa raha hay koi


Palat kar na aajaye phir saans nabzo'n main
Itnay haseen haathon say mayyat sajaa raha hay koi


Wo sufaid phool si ik dua meray sath sath rahee sadaa
Ye usi ka faiz hai barhaa mai bikhar bikhar k sanwar gaye

sahir ludhiyanavi...

ज़िन्दगी सिर्फ मोहब्बत नहीं कूछ और भी है
जुल्फ-ओ-रुखसार की जन्नत नहीं कूछ और भी है
भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनीया में इश्क हि
एक हकीकत नहीं कूछ और भी है.

प्यार पर बस तो नहीं है लेकिन फिर भी .

तू बता दे की मैं तुझे प्यार करुँ या ना करुँ


नफरतों के जहाँ में हमको प्यार की बस्तियां बसानी हैं
दूर रहना कोई कमाल नहीं, पास आओ तो कोई बात बने


वह वक़्त गया वह दौर गया जब दो कौमों का नारा था

वह लोग गये इस धरती से जिनका मकसद बटवारा था

तुमसे कुव्वत लेकर, मैं तुमको राह दिखाऊँगा
तुम परचम लहराना साथी , मैं बर्बत पर गाऊँगा
आज से मेरे फन का मकसद जंजीरे पिघलाना है
आज से मैं शबनम के बदले अंगारे बरसाऊगा .

Saturday, October 11, 2008

sahir ki gazal

दो बूँद सावन की -
एक सागर की सीप में टपके और मोटी बन जाए
दूजी गंदे जल में गिरकर अपना आप गंवाए
किसको मुजरिम समझे कोई , किसको दोष लगाये।

दो कलियाँ गुलशन की -
एक सेहरे के बीच गुंधे और मन ही मन इतराए
एक अर्थी की भेट छाडे और धूलि में मिल जाए
किसको मुजरिम समझे कोई , किसको दोष लगाये

दो सखियाँ बचपन की -
एक सिंहासन पर बैठे और रूपवती कहलाये
दूजी अपने रूप के कारण गलियों में बिक जाए
किसको मुजरिम समझे कोई , किसको दोष लगाये

Thursday, October 9, 2008

sahir's katye 1

न मुंह छुपा के जिए हम , न सर झुका के जिए
सितमगरों की नजर से नजर मिला के जिए
अब एक रात अगर कम जिए , तो कम ही सही
यही बहुत है की हम मशालें जला के जिए ।

Friday, October 3, 2008

Ahmad Faraj

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं।
सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं।
सुना है बोले तो बातो से फूल झड़ते हैं।
ये बात है तो चलो बात कर के देखते है ।
सुना है रात उसे चाँद ताकता रहते है।
सितारे माने फलक से उतर के देखते है।
सुना है उसके लबों से गुलाब जलते है।
सो हम बहार पे इल्जाम धर के देखते हैं।
सुना है की उसके बदन की तराश ऐसी है।
की फूल अपनी पंखुडियां कुतर के देखते हैं।

MEMORIES

ज़रा पन्ने तो पलटिये,
यादों की उन किताबों के ,
जिन्हें हम पीछे भूल आये हैं ।
उन पन्नों के बीच ,
कुछ सूखे मुरझाये
फूल मिलेंगे,
वो सुनाते हैं कहानी ,
उन दिनों की ,
जब सर्दियों की सुबह ,
वो खिले थे, निखरे थे ,
हवा के साथ झूमते थे।
ओस की बूंदों में ,
लिपटे वे फूल
कितने सुन्दर थे,
कितने अच्छे थे।
अब वो दिन कहाँ?